कैनविज टाइम्स, डिजिटल डेस्क ।
भारतीय लोकतंत्र का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि यहाँ राष्ट्रीय महत्व की किसी भी योजना पर राजनीतिक बहस इतनी तेज हो जाती है कि असली तथ्य पीछे छूट जाते हैं और जनता के सामने आधे-अधूरे सच पहुंचते हैं। ग्रेट निकोबार की समग्र विकास परियोजना इसका ताजा उदाहरण है। यह परियोजना केवल एक बंदरगाह या हवाई अड्डा नहीं है, इससे बहुत आगे भारत की समुद्री सुरक्षा, वैश्विक व्यापार में भागीदारी और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। किंतु इसे लेकर कांग्रेस बार-बार शंका और भय का वातावरण बनाकर जनता को यह जताने की कोशिश कर रही है कि मानो सरकार देश और समाज को किसी बड़े संकट की ओर धकेल रही है। केंद्र सरकार ने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को भारत की सुरक्षा के एक मजबूत किले के रूप में विकसित करने का संकल्प लिया है। स्वभाविक है कि इस दिशा में ग्रेट निकोबार परियोजना एक ‘गेमचेंजर’ साबित हो सकती है। इसके अंतर्गत गैलेथिया खाड़ी में विश्वस्तरीय अंतरराष्ट्रीय ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल, ग्रीनफील्ड अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, 300,000 से 400,000 लोगों के लिए एक नियोजित टाउनशिप, 450 एमवीए क्षमता वाला गैस और सौर आधारित पॉवर प्लांट और सड़कों-जलगृहों का नेटवर्क तैयार किया जाना है। नीति आयोग के नेतृत्व में और एएनआईआईडीसीओ के माध्यम से चल रही इस परियोजना की अनुमानित लागत लगभग 81,000 करोड़ रुपये है। आज रणनीतिक दृष्टि से ग्रेट निकोबार का महत्व किसी से छिपा नहीं है। यह मलक्का जलडमरूमध्य के पश्चिमी छोर और सिक्स डिग्री चैनल के पास स्थित है। दुनिया के 30 से 40 प्रतिशत समुद्री व्यापार जहाज इसी रास्ते से गुजरते हैं और चीन की ऊर्जा आपूर्ति का बड़ा हिस्सा भी यहीं से आता है। यदि भारत इस क्षेत्र में मजबूत उपस्थिति दर्ज करता है तो हिंद महासागर में बीजिंग की विस्तारवादी ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ रणनीति को सीधी चुनौती मिलेगी। एक ओर चीन ग्वादर, हंबनटोटा और क्याउकप्यू जैसे बंदरगाहों में निवेश करके हिंद महासागर में घेराबंदी कर रहा है, तो दूसरी ओर भारत का यह कदम स्वाभाविक रक्षा प्रतिक्रिया है। जोकि पूरे हिंद-प्रशांत की समुद्री सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। नौसैनिक दृष्टि से भी यह योजना दूरगामी है। प्रस्तावित हवाई अड्डा नागरिक और सैन्य, दोनों उपयोग के लिए होगा। यह भारत की एकमात्र त्रि-सेवा कमान—अंडमान और निकोबार कमान को तत्काल तैनाती और निगरानी की नई क्षमता देगा। नौसेना के युद्धपोत, एयर फोर्स के विमान और थलसेना की लॉजिस्टिक सप्लाई इस द्वीप से तेजी से संचालित की जा सकेंगी। यह केवल रक्षा और व्यापार नहीं, बल्कि मानवीय सहायता और आपदा प्रबंधन का भी केंद्र बनेगा।
वस्तुत: आर्थिक दृष्टि से यह परियोजना भारत के लिए वरदान है। आज भारत के कंटेनर जहाजों को सिंगापुर या कोलंबो होकर गुजरना पड़ता है। इस पर हर साल लगभग 1800 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। ग्रेट निकोबार पर बनने वाला ट्रांसशिपमेंट पोर्ट यह निर्भरता खत्म कर देगा। इसकी क्षमता पहले चरण में 4 मिलियन टीईयू होगी और 2050 तक यह 16 मिलियन टीईयू तक पहुँच सकती है। यह भारत को वैश्विक समुद्री व्यापार का प्रमुख केंद्र बनाएगा, विदेशी मुद्रा की बचत करेगा और हजारों करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व उत्पन्न करेगा। इसके साथ ही इस परियोजना से लगभग ढाई लाख प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार पैदा होंगे। पर्यटन, लॉजिस्टिक्स, शिक्षा और स्वास्थ्य के नए अवसर खुलेंगे। लेकिन कांग्रेस इस योजना को “दुस्साहस” बताकर आदिवासी अधिकारों और पर्यावरणीय खतरे का मुद्दा उठा रही है। सोनिया गांधी ने हाल ही में एक लेख में चेतावनी दी कि यह परियोजना शोम्पेन और निकोबारी जनजातियों के अस्तित्व के लिए संकट है और इससे लाखों पेड़ काटे जाएंगे। जयराम रमेश ने पेड़ों की संख्या 8.5 लाख से बढ़ाकर 32 से 58 लाख तक बताई और इसे पर्यावरणीय विनाश कहा। राहुल गांधी ने जनजातीय मामलों के मंत्री को पत्र लिखकर वन अधिकार अधिनियम के उल्लंघन की बात उठाई। इन आरोपों में सच्चाई कितनी है, यह अलग बहस हो सकती है। पर इससे जुड़ा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि शोम्पेन और निकोबारी जनजातियों की सुरक्षा और कल्याण के लिए 200 करोड़ रुपये से अधिक का विशेष पैकेज रखा गया है। किसी भी जनजातीय परिवार को जबरन विस्थापित नहीं किया जाएगा। स्वास्थ्य, शिक्षा और आजीविका सुधारने के लिए योजनाएँ हैं। द्वीप के 82 प्रतिशत क्षेत्र को अब भी संरक्षित रखा जाएगा। पर्यावरण संरक्षण और पुनर्वनीकरण के लिए 30 वर्षों में 9,162 करोड़ रुपये का प्रावधान है। समुद्री जीवों, प्रवाल भित्तियों और लेदरबैक कछुए तक के संरक्षण हेतु वैज्ञानिक उपाय तय किए गए हैं। सरकार का दावा है कि यह परियोजना विकास और पर्यावरण संरक्षण, दोनों के संतुलन के साथ आगे बढ़ेगी। क्या कांग्रेस इस बात से डर रही है कि ग्रेट निकोबार आईलैंड प्रोजेक्ट की शुरुआत नरेन्द्र मोदी सरकार ने 2021 में की है। इस मेगा प्रोजेक्ट को अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों के आखिरी छोर तक बनाया जाना है। इसमें मालवाहक जहाजों के लिए बंदरगाह, एक इंटरनेशनल एयरपोर्ट, स्मार्ट सिटी और 450 मेगावॉट की गैस और सौर बिजली परियोजना स्थापित किया जाना शामिल है और यदि से सफल होता है तो इसका श्रेय मोदी सरकार एवं भाजपा को सदियों तक मिलता रहेगा ?
यहाँ सवाल उठता है कि यदि 2012 में कांग्रेस सरकार के समय आईएनएस बाज को कैंपबेल बे में स्थापित करना सही था, तो आज उसी क्षेत्र में विस्तृत विकास करना क्यों गलत है? जब तत्कालीन यूपीए सरकार ने समुद्री रणनीति को ध्यान में रखकर इस क्षेत्र को महत्व दिया था, तो अब उसे “आदिवासी अस्तित्व पर हमला” बताना क्या दोहरा रवैया नहीं है? आज आईएनएस बाज भारतीय नौसेना का एक ऐसा नौसैनिक हवाई स्टेशन है, जो ग्रेट निकोबार द्वीप पर कैंपबेल बे से भारत के दक्षिणी क्षेत्र की निगरानी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और मलक्का जलडमरूमध्य और सिक्स डिग्री चैनल पर नजर रखने में मदद करता है। क्या कोई इस सामरिक महत्व को नकार सकता है? परियोजना के विरोध में भूकंपीय जोखिम का तर्क भी दिया जा रहा है। 2004 की सुनामी के समय यह क्षेत्र प्रभावित हुआ था, लेकिन उसके बाद से ही यहाँ मजबूत भूकंपीय निगरानी और आपदा प्रबंधन प्रणाली विकसित की गई है। यह तर्क देना कि आपदा की आशंका से विकास रोक दिया जाए, वैसा ही है जैसे भूकंप संभावित क्षेत्रों में कोई शहर या उद्योग न बसाया जाए। इस दृष्टि से देखें तो भारत के उच्च जोखिम वाले भूकंपीय क्षेत्रों में उत्तर-पूर्वी राज्य, हिमालयी क्षेत्र (जैसे कश्मीर और उत्तर बिहार), गुजरात का कच्छ क्षेत्र और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह शामिल हैं, जहाँ शक्तिशाली भूकंप आ सकते हैं। इन क्षेत्रों में दिल्ली, श्रीनगर और गुवाहाटी जैसे कई बड़े शहर भी स्थित हैं जो भूकंप के प्रति संवेदनशील माने जाते हैं। तब तो फिर इस सभी शहरों एवं राज्यों को खाली कर देना होगा। कांग्रेस यहां यह भूलती हुई नजर आ रही है कि आधुनिक इंजीनियरिंग और तकनीक का उद्देश्य ही यही है कि जोखिम के बावजूद सुरक्षित निर्माण हो सके।
सवाल यह है कि क्या हमें अपने सामरिक हितों और आर्थिक संभावनाओं को इसलिए छोड़ देना चाहिए कि कुछ जोखिम हैं? या हमें उन जोखिमों का वैज्ञानिक समाधान निकालना चाहिए और आगे बढ़ना चाहिए? सरकार का दावा यही है कि उसने वैज्ञानिक संस्थाओं, पर्यावरण विशेषज्ञों और जनजातीय कल्याण मंत्रालय की सलाह के आधार पर ही परियोजना को मंजूरी दी है। फिर केंद्रीय मंत्रियों ने बार-बार स्पष्ट किया है कि यह योजना केवल आधारभूत ढाँचे का विस्तार नहीं, बल्कि हिंद-प्रशांत में भारत की स्थिति को मज़बूत बनाने का राष्ट्रीय दायित्व है। पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने संसद में कहा कि “विकास और पर्यावरण विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। ग्रेट निकोबार परियोजना इसका उदाहरण होगी।” रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इसे “भारत की सामरिक ढाल” बताया। जनजातीय मामलों के मंत्री जुएल ओराम ने कहा कि “जनजातीय अधिकारों और ग्रामसभा की सहमति को पूरी तरह सुनिश्चित किया गया है।” वास्तव में यदि विपक्ष यदि इस पर गंभीर है तो उसे ठोस वैकल्पिक सुझाव देने चाहिए, न कि केवल भय और अविश्वास का वातावरण बनाना चाहिए। आज दुनिया के तमाम देश हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की होड़ में हैं। यदि भारत अपने सामरिक स्थानों को मजबूत नहीं करेगा तो यह बड़ा अवसर गंवा देगा और चीन जैसी शक्तियाँ शून्य भर देंगी। यह अवसर गँवाना ही हमारे लिए दुस्साहस होगा। क्योंकि ग्रेट निकोबार परियोजना भारत की भावी सामरिक और आर्थिक शक्ति का आधार है और यह हिंद महासागर में भारत की भूमिका को निर्णायक बनाएगी। अब कांग्रेस चाहे जितने तर्क दे, लेकिन सच्चाई यह है कि इस परियोजना को रोकना भारत की सुरक्षा और विकास, दोनों से समझौता करना होगा। आलोचना करना लोकतंत्र का हिस्सा है, पर तथ्यों के विपरीत भ्रम फैलाना जनता और देश दोनों के साथ अन्याय है। ग्रेट निकोबार परियोजना दुस्साहस नहीं, बल्कि दूरदृष्टि का प्रतीक है।