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‘द बंगाल फाइल्स’: इतिहास का वो सच, जो हमें कभी नहीं बताया गया

द बंगाल फाइल्स
  • By Kanhwizz Times
  • Reported By: Kritika pandey
  • Updated: September 9, 2025

कैनविज टाइम्स, डिजिटल डेस्क ।

‘द बंगाल फाइल्स’ महज एक फिल्म नहीं है, यह भारत के इतिहास की उस रक्तरंजित सच्चाई का आईना है जिसे दशकों तक छुपाया गया। यहां तक कि अध्‍ययन के स्‍तर पर कभी किसी स्‍कूल की पढ़ाई में तमाम इतिहास के किरादारों एवं घटनाओं के पठन-पाठन के बीच कभी यह सच नहीं बताया गया कि कैसे भारत का रक्‍त रंजित हिन्‍दू हत्‍याओं का इतिहास है। इसके उलट हमारे समाज को बार-बार यह भ्रम दिया गया कि हम एक शांतिपूर्ण, धर्मनिरपेक्ष और सभ्य देश में जी रहे हैं। दरअसल, यह भ्रम इतना गहरा बैठा है कि पीढ़ियाँ यह मानकर बड़ी हुईं कि इतिहास मे जो कुछ हिंसा हुई वह तो आपसी दुश्‍मनी या सत्‍ता प्राप्‍ति के लिए था, फिर भी जो थोड़े-बहुत जख्म थे, वह भर चुके हैं। लेकिन यह फि‍ल्म उस नकली पट्टी को हटाती है और दिखाती है कि घाव आज भी रिस रहा है। जब कोई दर्शक इसे देखता है तो उसकी प्रतिक्रिया मनोरंजन की नहीं बल्कि आत्ममंथन की होती है। वह तालियाँ नहीं बजाता, बल्कि चुप हो जाता है, क्योंकि स्क्रीन पर दिख रहा दर्द महज कल्पना नहीं बल्कि इतिहास का जीवित दस्तावेज है। भारत का विभाजन केवल राजनीतिक समझौता नहीं था, यह मानव इतिहास का सबसे बड़ा जबरन विस्थापन था। 1947 में लगभग एक करोड़ चौबीस लाख लोग अपनी जमीन-जायदाद छोड़कर पलायन के लिए मजबूर हुए। आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि दस से बीस लाख लोग इस विभाजन की हिंसा में मारे गए। लेकिन इन आँकड़ों के पीछे जो पीड़ा छिपी है, उसका कोई हिसाब नहीं। लाखों स्त्रियाँ अपमानित हुईं, हजारों बच्चों का भविष्य अंधेरे में डूब गया।

16 अगस्त की रात, ग्रेट कलकत्ता किलिंग

इतिहास में इस रक्तपात की जड़ें 16 अगस्त 1946 को बोई गईं, जब मुस्लिम लीग ने डायरेक्ट ऐक्शन डे घोषित किया। कोलकाता की सड़कों पर उस दिन से शुरू हुई हिंसा ने तीन दिनों में कम-से-कम 10,000 लोगों की जान ले ली। ब्रिटिश प्रशासन की रिपोर्टों और ‘द स्टेट्समैन’ जैसे अखबारों के समकालीन विवरणों से यह साफ है कि यह नरसंहार योजनाबद्ध था। लगभग डेढ़ लाख लोग विस्थापित हुए और हिंदू बहुल बस्तियाँ राख में बदल गईं। इसे ही इतिहास ने ग्रेट कलकत्ता किलिंग का नाम दिया। अभी यह जख्म ताजा ही था कि अक्टूबर 1946 में नोआखाली में और भी भयावह घटनाएँ घटीं। यह क्षेत्र आज बांग्लादेश का हिस्सा है। वहाँ पर सुनियोजित तरीके से हिंदुओं के गाँवों पर हमला किया गया। सैकड़ों गाँव जलाए गए, हजारों महिलाओं का जबरन धर्मांतरण किया गया और बलात्कार तो सामान्य वारदात बन गए। आँकड़े बताते हैं कि केवल कुछ ही हफ्तों में लगभग 1000 हिंदुओं की हत्या की गई और लगभग 70,000 से अधिक लोग बेघर हो गए। जिन स्त्रियों को जबरन मुसलमान बनाया गया, उनकी संख्या आज भी अज्ञात है क्योंकि पीड़ित परिवारों ने सामाजिक कलंक के डर से कभी अपनी कहानी दर्ज नहीं कराई। गाँधी जी वहाँ पहुँचे, उन्होंने उपवास किया, प्रवचन दिए, लेकिन पीड़ितों की पीड़ा पर कोई ठोस समाधान सामने नहीं आया। वस्‍तुत: फिल्‍म ‘द बंगाल फाइल्स’ इन घावों को याद कराती है और हमें बताती है कि इतिहास के ये अध्याय हमारे सामूहिक स्मृति से मिटा दिए गए।

यह सब एकबारगी घटनाएँ नहीं थीं। 1947 के विभाजन में पंजाब और बंगाल दोनों जगहों पर नदियाँ खून से लाल हो गईं। आधिकारिक रूप से दस से बीस लाख लोग मारे गए, लेकिन कई स्वतंत्र इतिहासकार मानते हैं कि यह संख्या तीस लाख तक भी हो सकती है। 1947 से 1951 के बीच लगभग 72 लाख हिंदू और सिख भारत आए जबकि उतने मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए। यह आँकड़े बताते हैं कि पलायन कितना असमान और हिंसक था। इतिहास की यह क्रूरता यहीं नहीं रुकी। 1971 में जब पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ चलाया तो यह मानवता के इतिहास का एक और बड़ा नरसंहार बना। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के अनुमान के अनुसार 20 से 30 लाख लोग मारे गए। इनमें बड़ी संख्या हिंदुओं की थी। लगभग 2 से 4 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। करीब एक करोड़ लोग भारत में शरण लेने आए, जिनमें से अधिकांश बंगाल और त्रिपुरा में बसे। यह विस्थापन आज भी उन इलाकों के सामाजिक ढाँचे पर बोझ है। लेकिन हमारी किताबों में इसे एक युद्ध का परिणाम कहकर दबा दिया गया, जैसे यह कोई सामान्य घटना हो। इतिहास की इस लड़ी में 1990 का कश्मीरी हिंदुओं का पलायन भी शामिल है। आँकड़े बताते हैं कि उस समय घाटी में लगभग 3.5 लाख हिंदू रहते थे। देखते-देखते आतंक और हिंसा के चलते 95 प्रतिशत लोग अपने घर छोड़कर भागे। सरकारी आँकड़े कहते हैं कि लगभग 1000 लोग मारे गए, लेकिन कश्मीरी पंडित संगठनों का दावा है कि वास्तविक संख्या कई गुना अधिक थी। महिलाओं के साथ बलात्कार, बच्चों की हत्याएँ और भयावह धमकियाँ इस पलायन के पीछे थीं। यह सब कुछ उसी सिलसिले का हिस्सा था जो 1946 में बंगाल से शुरू हुआ था।

‘द बंगाल फाइल्स’ इस पूरे सिलसिले को जोड़ती है। यह कहती है कि कट्टरपंथ अगर आपके आसपास पनप रहा है, तो यह मत सोचिए कि यह केवल किसी और की समस्या है। परसों बंगाल की बारी थी, कल कश्मीर की थी और कल को शायद आपकी बारी हो। यही संदेश इस फि‍ल्म को महज मनोरंजन से आगे बढ़ाकर सामाजिक चेतावनी बनाता है। फि‍ल्म का केंद्रीय पात्र भारती बनर्जी दरअसल उस आहत भारतमाता का प्रतीक है जो बार-बार लहूलुहान होती रही। पल्लवी जोशी का अभिनय इसे जीवंत बना देता है। दर्शक यह महसूस करता है कि यह केवल एक स्त्री की नहीं, बल्कि एक सभ्यता की पीड़ा है। फि‍ल्म में गोपाल पाठा जैसे भूले हुए नायकों का उल्लेख है, जिनका नाम हमारे बच्चों ने कभी नहीं सुना। स्कूलों की किताबों में यह जगह ही नहीं पा सके। क्यों? क्योंकि जिन इतिहासकारों ने किताबें लिखीं, उन्होंने वामपंथी दृष्टिकोण से प्रेरित होकर एकपक्षीय आख्यान गढ़ा। फि‍ल्म के संवाद भी आँकड़ों की तरह कठोर और सच्चाई से भरे हैं। जब एक अफसर अपने वरिष्ठ से पूछता है कि “क्यों हर अपराध को हिंदू-मुस्लिम का रंग देकर दबा दिया जाता है?” तो यह सवाल केवल इतिहास का नहीं, बल्कि आज का भी है। हम हर समस्या को सांप्रदायिक कहकर टाल देते हैं और असली मुद्दे को छुपा देते हैं। यही कारण है कि यह फि‍ल्म हमें असहज करती है। यह हमारी उस नकली आत्म-छवि को तोड़ देती है जिसमें हम मानते हैं कि सब कुछ ठीक है।

‘द बंगाल फाइल्स’ यही सवाल पूछती है। यह याद दिलाती है कि भारत का विभाजन केवल भौगोलिक नहीं था, यह सभ्यता और अस्मिता पर किया गया घाव था। गाँधी जी की नीतियों से लेकर कांग्रेस नेताओं की अधीरता तक, और वामपंथी इतिहासकारों की चुप्पी से लेकर मीडिया की अनदेखी तक, हर मोड़ पर हिंदुओं के नरसंहार को दबाने की कोशिश हुई। फि‍ल्म यह भी दिखाती है कि यह हिंसा कोई एक बार की घटना नहीं, यह आज भी लगातार अनवरत किसी न किसी रूप में जारी है।

जरूरी है भारत को अपने अतीत के सच जानना

यह भी याद रखना होगा कि दुनिया में जब-जब सच सामने आया है, समाज और संवेदनशील हुआ है। जर्मनी ने यहूदी नरसंहार की सच्चाई स्वीकार की, तभी वह आत्ममंथन कर सका। अमेरिका ने अश्वेतों और मूल निवासियों पर हुए अत्याचारों को स्वीकार किया, तभी सुधार संभव हुआ। भारत अगर अपने अतीत का सच नहीं देखेगा, तो वह भविष्य की त्रासदियों से कैसे बचेगा? ‘द बंगाल फाइल्स’ की सिनेमैटोग्राफी और संगीत दर्शक को उसी समय में खींच ले जाते हैं। जब बैकग्राउंड में पुराने बांग्ला गीत बजते हैं और दृश्य में जली हुई बस्तियाँ दिखती हैं तो लगता है कि हम इतिहास के पन्ने नहीं, बल्कि उस समय के बीचोबीच खड़े हैं। अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती, दर्शन कुमार जैसे कलाकारों का अभिनय इस संदेश को और गहरा बना देता है। लेकिन इस फिल्म की असली ताकत यह है कि यह केवल इतिहास की बात नहीं करती। यह वर्तमान और भविष्य को भी जोड़ती है। यह कहती है कि अगर समाज समय रहते सचेत नहीं हुआ, तो वही त्रासदी बार-बार लौटेगी। यह हमें चेतावनी देती है कि कट्टरपंथ को अनदेखा करना आत्मघाती है। राजेश खेरा, नमाशी चक्रवर्ती, मोहन कपूर, शाश्वत चटर्जी, सिमरत कौर समेत सभी कलाकारों ने अपने रोल के अनुसार बहुत अच्‍छा काम किया है, फिल्‍म के सभी पात्र अंत तक अपने किरदार में बने रहे हैं। और हर कोई किरदार आज की पीढ़ी को यह साफ संकेत और संदेश दे रहा है कि अब करना क्‍या है।

आज हमें यह तय करना है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को कौन-सा भारत सौंपेंगे। क्या हम उन्हें वही झूठ बताएँगे कि सब कुछ शांतिपूर्ण है? या हम उन्हें सच बताएँगे ताकि वे सजग रहें? आँकड़े साफ कहते हैं कि लाखों लोग मारे गए, करोड़ों विस्थापित हुए और असंख्य स्त्रियाँ अपमानित हुईं। यह सब केवल इसलिए हुआ क्योंकि समाज समय रहते सचेत नहीं हुआ। ‘द बंगाल फाइल्स’ हमें यही बताती है कि यह महज एक फि‍ल्म नहीं, इससे कहीं आगे इतिहास की जलती हुई चिंगारी है। यह हमें झकझोरती है, असहज करती है और चेतावनी देती है। यह कहती है कि अगर हमने समय रहते कट्टरपंथ का निर्मूलन नहीं किया, तो अगली बारी हमारी ही होगी। यही इस फि‍ल्म का असली सबक है और यही इसकी विरासत भी है। यह हमें बताती है कि अगर हम अपनी आँखें मूँदे रहे, तो वही त्रासदी दोहराई जाएगी। समाज को चाहिए कि वह इस फिल्म को केवल एक कहानी न समझे। इसे चेतावनी की तरह देखे, सबक की तरह अपनाए।

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